05 दिसंबर, 2011

उद्भासित अंतर्मन

निबिड़, आर्द्र अंधकार में उभरती ज्योति पुंज !
प्रायः कर जाती है अंतर्मन आलोकित,
मैं और मेरी छाया, निस्तब्ध 
रात्रि में करते हैं वार्तालाप, 
कहाँ और कैसे छूट
गए मुलायम 
तटबंध,
कुछ अंकुरित स्वप्न, कुछ सुप्त अभिलाषाएं,
जीवन कगार में अध खिले कुछ अनाम
पुष्प, जो अर्ध विकसित ही रहे, 
खिल न सके वो घनीभूत 
भावनाएं, समय की 
तपन पिघला न 
सकी वो 
अतृप्त पिपासा, बिखरी ही रहीं जीर्ण पल्लव 
पर, अनमोल ओष बिन्दुओं के सदृश,
तुम्हारा प्रेम, चाह कर छू न सका 
वो गीत बिखरा रहा संवेदना 
के तारों पर लापरवाही 
से आजन्म, इस 
उधेड़बुन में 
व्यस्त रहा जीवन कि हो पूर्ण संग्रह ब्रह्माण्ड 
हथेलियों में सिमट कर, वो वृष्टि छायित 
भू भाग कभी भीग ही न पाया, 
जबकि सजल नयन थी 
सम्मुख हर पल, 
फिर कभी 
अगर 
पुनर्जीवन हो प्राप्त, ह्रदय लिखेगा वास्तविक 
जीवन उपसंहार, यर्थाथ की कड़वाहट,
नग्न सत्य, छद्मविहीन चरित्र,
सम्पूर्ण सौन्दर्य, आवरण -
हीन प्रतिबिम्ब,

- - शांतनु सान्याल

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