30 जनवरी, 2012


हमने भी जीना सीख लिया 

तपते राहों से गुज़रना था लाज़िम,
परछाइयों ने वक़्त देखते ही 
रुख़ अपना बदल लिया, 
ज़िन्दगी ने भी हर
मोड़ पर ख़ुद को 
मोड़ना, सीख 
लिया, 
वो ख़्वाब जो कभी झूलते थे 
रस्सियों में, भीगे कपड़ों 
की तरह, साँझ से 
पहले उन्हें 
हमने 
भी सहेज कर छत से, तह करके 
सरहाने सजा के रखना, देर 
से सही लेकिन आख़िर 
सीख लिया, वो 
मुहोब्बत जो 
देता रहा 
फ़रेब मुझको, वक़्त के साथ दिल 
भी उस इश्क़ से खुबसूरत
किनाराकशी करना 
सीख लिया. 
ज़माना अब कहे चाहे जो मर्ज़ी 
हमने भी सायादार दरख्तों 
को दोस्त बनाने का 
हुनर सीख लिया.

-- शांतनु सान्याल
 http://sanyalsduniya2.blogspot.com/



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