25 दिसंबर, 2022

शीशे का शहर - -


 कोई नहीं होता यहां जनम से राजन या फ़क़ीर,

मिटाए भला कहां मिटती है, नियति की लकीर,
ढूंढता हूँ मैं तन्हाइयों में टूटे हुए सितारों का पता,
चल रहा हूँ, राह ए मक़तल पर पांव बंधे जंज़ीर,
नाज़ुक शीशे का शहर है, संगसारों की ज़मीं पर,
बाहर है रौशनी का राज बोझिल अंदर का शरीर,
यक़ीन ए इंतहा ही थी, या हद से बढ़ कर जुनून,
पढ़े बग़ैर कर दी दस्तख़त, ख़ुदा जाने वो तहरीर,
खोल भी दी जाए आँखों से, सभी काली पट्टियां,
बेनक़ाब से हो चले हैं रिश्तों के नज़ारे यूँ बेनज़ीर,
* *
- - शांतनु सान्याल

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