महाशून्य में बहे जा रहे हैं ग्रह नक्षत्र, सुबह
शाम, सुख दुःख, प्रेम घृणा, धूप छांव
जल थल, जन्म मृत्यु, समस्त
ब्रह्माण्ड, हर चीज़ है यहाँ
चलायमान, इस महत
स्रोत के दोनों तट
पर चलते हैं
नियति
चक्र,
कभी शंख ध्वनि, कभी मौन क्रंदन, जीवन
करता है हर हाल में सहर्ष अभिनन्दन,
महोत्सव के नेपथ्य में छुपा रहता
है उत्थान पतन, जो कुछ इस
पल में हो हासिल, समझें
उसे अदृश्य मुख का
अप्रत्याशित
अनुदान,
हर
चीज़ है यहाँ चलायमान । सरकते जाते हैं -
शेष प्रहर में हर वस्तु, पीछे जैसे कोई
उन्हें खींच रहा हो तेज़ी से, हम
होते हैं तब अनजान सफ़र
के यात्री, वृक्ष, पल्लव,
फूलों से लदी
नाज़ुक
टहनियां, पक्षियों के झुण्ड, विशाल नदी का
पुल, डूबता हुआ सूरज, स्मृति खंडहर
सब कुछ पीछे छूट कर हो जाते हैं
सुदूर विलीन, किसी सम्मोह
की तरह हम बढ़ते जाते
हैं आगे महा प्रवाह
के संग, सिर्फ़
कानों में
रह रह
कर
गूंजती है लौह घंटियों की आवाज़, उतरने के
पहले दीर्घ रात्रि का होता है अवसान,
हर चीज़ है यहाँ चलायमान ।
* *
- - शांतनु सान्याल
14 दिसंबर, 2022
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 15 दिसंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
असंख्य आभार आपका।
हटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार आपका।
हटाएंबहुत सुन्दर ! जीवन चलने का ही तो नाम है.
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार आपका।
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार आपका ।
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