ईंट कंक्रीट के जंगल से कहीं दूर है, इक
कुहासे में लिपटा हुआ, ऊंघता सा
गांव, ऊंचे दरख़्तों में, शाम
ढले लगता है, परिंदों
का सांध्यकालीन
पाठशाला,
इक
नदी जो गुज़रती है उस के क़रीब से हो -
कर, जिस के सीने पर टिमटिमाते
हैं जुगनुओं की तरह सांझ -
बाती, सुदूर इक रेत के
टीले से बंट जाती
है नदी दो
पृथक
हिस्सों में, कदाचित वो दोनों कही दूर -
जा मिलते हों आपस में दोबारा,
परिश्रांत देह को जैसे मिल
जाए कोई रात्रि पड़ाव,
ईंट कंक्रीट के
जंगल से
कहीं
दूर है, इक कुहासे में लिपटा हुआ, ऊंघता
सा गांव । ज़िन्दगी चाहती है कुछ
दिनों का निःशर्त अवकाश,
वो लौटना चाहती है उस
धूसर ज़मीं पर जहाँ
फैला रहता है
धरती माँ
का
आंचल बारह मास, धान की बालियों में
ओस कण लिख जाते हैं सजल
कविता, आम्र मुकुल से
झरते हैं सुरभित
निःश्वास,
जैसे
मिल जाए मुद्दतों बाद ममतामयी किसी
अनाम वृक्ष की छांव, ईंट कंक्रीट
के जंगल से कहीं दूर है, इक
कुहासे में लिपटा हुआ,
ऊंघता सा
गांव ।
* *
- - शांतनु सान्याल
13 दिसंबर, 2022
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