बरामदे की नरम धूप जो हम आहंग है
तुम्हारी तरह, उठ के आएं भला
कैसे उस तस्सवुर ए सुकूं से,
इक अजीब सी क़ैफ़ियत
होती है जब कभी
लौटते है हम
बंद कमरे
के अंदर
कि
हम छोड़ आए हैं कोई अनमोल लम्हा
दर अतराफ़ तुम्हारे, हमें फ़ुर्सत
ही नहीं मिलती कम्बख़्त
इश्क़ ए जुनूं से, उठ
के आएं भला कैसे
उस तस्सवुर
ए सुकूं
से ।
यूँ तो ज़िन्दगी की त्रिकोणमिति होती
है अपने आप में उलझी हुई, फिर भी
हम ढूंढते हैं जटिल समीकरणों
का हल एक दूसरे के अंदर,
इक अदृश्य रसायन
जो जोड़े रखता
है हमारा
वजूद,
निःस्तब्ध रात के सुदूर गहन अरण्य में
टिमटिमाते हैं कुछ आस भरे जुगनू
से, हमें फ़ुर्सत ही नहीं मिलती
कम्बख़्त, इश्क़ -
ए जुनूं
से ।
* *
- - शांतनु सान्याल
12 दिसंबर, 2022
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जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार आपका।
हटाएंयूँ तो ज़िन्दगी की त्रिकोणमिति होती
जवाब देंहटाएंहै अपने आप में उलझी हुई, फिर भी
हम ढूंढते हैं जटिल समीकरणों
का हल एक दूसरे के अंदर,
इक अदृश्य रसायन ,
जो जोड़े रखता है हमारा वजूद//👌👌👌🙏
असंख्य आभार आपका।
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना मंगलवार 13 दिसंबर २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
असंख्य आभार आपका।
हटाएंज़िन्दगी को देखने का एक अलग अंदाज । बेहतरीन
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार आपका ।
हटाएं