सघन अंधकार से उभर चला है तिर्यक
प्रतिबिंब, बे जिस्म सा कोई साया
उतरा है बदन से अभी अभी,
वो मुझ में रह कर करता
रहा मुझे ही खोखला,
उसके इश्क़ का
जुनूं उतरा
है ज़ेहन
से अभी अभी, बे जिस्म सा कोई साया
उतरा है बदन से अभी अभी । शून्य
दृष्टि पथ हो चला है कांच सा,
पूरी तरह स्पष्ट, कितनी
गहराई और है बाक़ी,
कि देख पाएं
हम डूबते
सूरज
को
बेहद क़रीब से, सौगातों की कोई कमी
न थी, बस अपना दामन रहा ख़ाली
अपने नसीब से, लहरों में तैरते
हैं अनगिनत रौशनी के
जल विभाजिकाएं,
कदाचित, चाँद
उतरा है
नंगे
पांव, सितारों भरे गगन से अभी अभी,
बे जिस्म सा कोई साया उतरा है
बदन से अभी अभी ।
* *
- - शांतनु सान्याल
10 दिसंबर, 2022
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