03 दिसंबर, 2022

 उम्मीद की लौ - -

अंधकार घिरने से पहले, न कोई अफ़सोस,
न ही कोई शिकायत रही, हर एक के पास
है प्राथमिकता की अपनी सूचि,
शून्य अपेक्षा ही होती है
सर्वोत्तम संतुष्टि,
जंग लगे दर
ओ दीवार
पर है
लटकती हुई शब्द विहीन नाम की तख़्ती,
अध खुले दरवाज़े से झांक कर चाँद
की रौशनी जताती है अपनी
उपस्थिति, हर एक के पास
है प्राथमिकता की
अपनी सूचि !
रंगहीन,
गंध -
विहीन सूखे फूलों का कोई नहीं तलबगार,
आत्मीयता का बहाव सर्वदा होता है
निम्नमुखी, सुबह और शाम के
मध्य कितना कुछ बह जाता
है केवल साक्षी रहता है
एक मात्र नमनीय
सूरजमुखी,
रिक्त
स्थानों को भर जाता है मौसम का पहिया,
अतीत के भित्ति पर ज़्यादा दिन नहीं
ठहरते कांच के यादगार, रंगहीन,
गंध विहीन सूखे फूलों का
कोई नहीं तलबगार !
फिर भी ज़िन्दगी
हर हाल में
देखती
है आइना, पुनर्रचना के लिए खोजती है -
नए गंतव्य, रंगीन क्षितिज, भरना
चाहती है रंगों से घिसा पीटा
धूसर कैनवास,कदाचित
मरुभूमि को भिगो
जाए अनाहूत
सांध्य वृष्टि,
हर एक के
पास है प्राथमिकता की अपनी सूचि, शून्य
अपेक्षा ही होती है सर्वोत्तम
संतुष्टि - - -
* *
- - शांतनु सान्याल


 


8 टिप्‍पणियां:


  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०४-१२-२०२२ ) को 'सीलन '(चर्चा अंक -४६२४) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. आदरणीय शांतनु सन्याल. जी, नमस्ते 🙏❗️
    मरुभूमि को भिगो
    जाए अनाहूत
    सांध्य वृष्टि,
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ❗️

    कृपया मेरे ब्लॉग पर मेरी रचना "मैं. ययावारी गीत लिखूँ और बंध - मुक्त हो जाऊं " पढ़ें, वहीँ पर यूट्यूब के दिए गए लिंक पर दृश्यों के संयोजन के साथ देखें और कविता मेरी आवाज़ में सुनें... सादर आभार!--ब्रजेन्द्र नाथ

    जवाब देंहटाएं
  3. स्थानों को भर जाता है मौसम का पहिया,
    अतीत के भित्ति पर ज़्यादा दिन नहीं
    ठहरते कांच के यादगार, रंगहीन,
    गंध विहीन सूखे फूलों का
    कोई नहीं तलबगार !
    फिर भी ज़िन्दगी
    हर हाल में
    देखती

    सुन्दर मनोभावों से सजी रचना। बधाई आपको

    जवाब देंहटाएं

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