हलकी से लकीर होती है, ज़िन्दगी और मौत के दरमियां,
उस पार है अँधेरा, इस पार पल भर की जोश ओ गर्मियां,
उसकी मुहोब्बत ने मुझ को कहाँ से कहाँ तक पहुंचा दिया,
जिस्म ओ जां तो वही है, लेकिन लापता हो गईं परछाइयां,
एक आदमी जो उम्र भर, लोगों को हँसाता रहा हर क़दम पे,
छलकती आँखों को देख कर दर्शकों की बजती रही तालियां,
न कभी समंदर ही देखा, न ही पहाड़ों के इसरार को है जाना,
जिस्म था कि ढल गया उसी सांचे में, क्या गर्मी क्या सर्दियाँ,
उन उंगलियों की छुअन से यूँ ज़िन्दगी के सफ़ात बदलते गए,
सभी चाहतें बुझते रहे अपने आप ही, मिटती रहीं परेशानियां,
* *
- - शांतनु सान्याल
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०१-०१-२०२३) को 'नूतन का अभिनन्दन' (चर्चा अंक-४६३२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
नव वर्ष की असंख्य शुभकामनाएं, धन्यवाद सह।
हटाएंला पता हो गयीं परछाइयाँ.. वाह
जवाब देंहटाएंनव वर्ष की असंख्य शुभकामनाएं, धन्यवाद सह।
हटाएंनव वर्ष की असंख्य शुभकामनाएं, धन्यवाद सह।
जवाब देंहटाएंतस्वीर खींचते रहे लोग
जवाब देंहटाएंजलती रही फूलों से लदी वादियाँ.
सशक्त भाव!--ब्रजेन्द्र नाथ
हृदय तल से असंख्य आभार आपका ।
हटाएंनववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें ... बहुत ख्ाूब लिखा शांतनु जी, कि -
जवाब देंहटाएंएक आदमी जो उम्र भर, लोगों को हँसाता रहा हर क़दम पे,
छलकती आँखों को देख कर दर्शकों की बजती रही तालियां
हृदय तल से असंख्य आभार आपका ।
हटाएं'एक आदमी जो उम्र भर, लोगों को हँसाता रहा हर क़दम पे,
जवाब देंहटाएंछलकती आँखों को देख कर दर्शकों की बजती रही तालियां'- बहुत खूब भाई शान्तनु जी! सुन्दर प्रस्तुति!
हृदय तल से असंख्य आभार आपका ।
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