ख़ुश्बुओं का सफ़र अपनी मंज़िल तक जा
पहुंचा, मेज़ पर था बहुत तनहा,शीशे
का वो इत्रदान, बंजारे शब्दों को
मिल चुका है कोरे पन्नों
का मुसाफ़िरख़ाना,
सूखा हुआ इक
गुलाब का
फूल,
किताब से गिर कर खोजता है लापता -
ठिकाना, अपना चेहरा भी कभी
कभी लगता है अक्स से बेहद
अनजान, मेज़ पर था
बहुत तनहा, शीशे
का वो इत्रदान।
कुछ चीज़े
होते हैं
बहुत
ख़ूबसूरत, छूने से उंगलियों में कर जाते
हैं गहरे सुराख़, छुअन की जुस्तजू
बढ़ा जाती है सिद्दत ए तिश्नगी,
अनबुझ जैसे जंगल की
शदीद आग, पलक
झपकते जो कर
कर जाए
दूर
तक हर शै को ख़ाक, क्या ज़मीं और क्या
आसमान, मेज़ पर था बहुत तनहा,
शीशे का वो इत्रदान।
* *
- - शांतनु सान्याल
09 दिसंबर, 2022
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