01 दिसंबर, 2022

 आख़री छोर पे - -

तस्लीम ए जुर्म के सिवा उसके  पास  कोई चारा न था,
जीने की शदीद चाह तो थी, सुदूर  कोई किनारा न था,

अपने ही फ़सील से ताउम्र  चाह कर भी न निकल पाए,
ख़ुद फ़रेबी ही सही, सिवा इसके कोई  भी सहारा न था,

जाते  भी आख़िर हम कहाँ, हर सू थे  घूमते हुए आइने,
चेहरे थे  मुद्दतों से आशना, फिर भी  कोई हमारा न था,

दिन चढ़ते  ज़िन्दगी की जद्दोजहद, वही  शाम  बोझिल,
उम्र से लम्बी रातें, हिस्से में  कोई  जश्न ए बहारां न था,

गुज़रते रहे  बेबस  उदास चेहरे, शाहराह पांव बंधे ज़ंजीर,
बेशिकन थे तमाशबीन इस से बेहतर  कोई नज़ारा न था,

भीड़ घेरी हुई थी शख़्स को जो जा चुका  मुल्क ए अदम,
कौन सोचे वो कैसे मरा दरअसल वो कोई तुम्हारा न था ।  
* *
- - शांतनु सान्याल

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