वक़्त की नोंक घूमती रहती है घिसे रिकार्ड पे
बारम्बार, फिर भी नए साल का हमें
रहता है बेक़रारी से इंतज़ार, इक
बहाना, जो उम्र को दे जाता
है कुछ मज़ीद लम्हात,
शून्य हथेलियों पर
उग आती हैं
कुछ सुख
की
लकीरें, जब कभी तुम रखते हो खुले हाथों पर
अपना हाथ, पल्लव विहीन टहनियों को
कदाचित होता है बसंत का अहंकार,
फिर भी नए साल का हमें
रहता है बेक़रारी से
इंतज़ार। रंग
मशालों
का
कारवां आधी रात को पहुँचता है जुनूनी मोड़
पर, बढ़ा जाता है कुछ और ज़िन्दगी की
ख़्वाहिश को, आइने से मुख़ातिब
हो कर, फिर दोबारा होते हैं तैयार
अपनी ही नुमाइश को,
अन्तःस्थल की
ज़मीं रहती
है तन्हा,
लोगों
को रहता है सिर्फ बाहर के सौंदर्य से सरोकार,
फिर भी नए साल का हमें रहता है
बेक़रारी से इंतज़ार।
* *
- - शांतनु सान्याल
31 दिसंबर, 2022
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