विखंडित पलों को जोड़ती हुई ज़िन्दगी बढ़
जाती है एक नए सफ़र के लिए, अभी
अभी गुज़री है कोई दूरगामी रेल,
पटरियों के दोनों तरफ है एक
अजीब सी थरथराहट भरी
ख़ामोशी, गहराती रात
के साथ हम गुज़रते
हैं नींद के सुरंग
से हो कर
किसी
अनजाने शहर के लिए, ज़िन्दगी बढ़ जाती है
एक नए सफ़र के लिए । मुंडेर से उतर कर
चाँदनी, अलिंद पर ठहरती है कुछ देर के
लिए, निढाल देह पर गिरते हैं बूंद -
बूंद ओस, खुलते हैं परत दर
परत ख़ुश्बुओं के स्पर्श,
नज़दीकियां ले जाती
हैं हमें सितारों के
उस पार किसी
और ही
जहान
में, हम बुनते हैं रेशमी स्वप्न परस्पर में डूब कर,
ज़िन्दगी ढूंढती है कोई न कोई नया विकल्प
गुज़र बसर के लिए, ज़िन्दगी बढ़ जाती
है एक नए सफ़र के लिए ।
- - शांतनु सान्याल
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