सारा अंतरिक्ष अपनी जगह रहता है यथावत्,
बस दिन के उजाले में हम उन्हें देख नहीं
पाते, सभी समारोह का अंत होता
है दिगंत में जा कर, मेलों
का क्या लगते उठते
रहते हैं साल भर,
अंतरतम के
खेल का
होता
नहीं पटाक्षेप, केवल दिन, रात का होता है -
शरणागत, सारा अंतरिक्ष अपनी जगह
रहता है यथावत् । मुरझाए से रहते
हैं स्मृति फूलदान के रजनी -
गंधा, समय चूस लेता
सभी गंध कोष,
बेरंग से होते
जाते हैं
क्रमशः प्रणय पंखुड़ी, बढ़ने लगती है दूरत्व -
की परछाई, वक़्त के साथ बदल जाती
है हमारी सोच, ढलान की ओर बढ़
जाते हैं सभी जल स्रोत, उत्स
बिंदु रह जाता है एकाकी,
दर्पण के सामने हर
कोई होता है
पूर्ण रूप
से
अनावृत, सारा अंतरिक्ष अपनी जगह रहता
है यथावत् - -
* *
- - शांतनु सान्याल
22 दिसंबर, 2022
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (25-12-2022) को "अटल होते आज अगर" (चर्चा अंक-4630) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर भाव समाहित रचना👌👌
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार आदरणीया ।
हटाएं