29 दिसंबर, 2022

पुनरावर्तन - -

ताउम्र कुछ भी चाहा नहीं तुम्हें चाहने के बाद,
शून्य में जा कर खो जाते हैं जो लोग
उसी कारवां का हूँ मैं मुसाफ़िर,
मर के बारम्बार लौट
आता हूँ मैं सिर्फ़
तुम्हारी ही
ख़ातिर,
ताउम्र कुछ और देखा नहीं तुम्हें देखने के बाद,
ताउम्र कुछ भी चाहा नहीं तुम्हें चाहने के
बाद । दर्पण के इस शहर में खोजता
हूँ मैं सिर्फ़ प्रतिबिम्ब तुम्हारा,
कहने को हर मोड़ पर
झिलमिलाता है
रंगीन सितारा,
देह पर
कोई
भी पोशाक नहीं सजता गेरुआ वसन पहनने
के बाद, ताउम्र कुछ भी चाहा नहीं तुम्हें
चाहने के बाद । इक हाथ बजता
रहा एकतारा, दूसरे हाथ पर
था विष का प्याला,
अनंत पथ के
हैं हम
यात्री, पल भर का विराम कहाँ, तुम्हारे तक
आ रुक जाते हैं सभी जीवन के रास्ते,
किसे ख़बर सुबह कहाँ और शाम
कहाँ, कोई गंत्वय नहीं
भाता तुम से
मिलने
के
बाद, ताउम्र कुछ भी चाहा नहीं तुम्हें चाहने
के बाद।
* *
- - शांतनु सान्याल















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