ताउम्र कुछ भी चाहा नहीं तुम्हें चाहने के बाद,
शून्य में जा कर खो जाते हैं जो लोग
उसी कारवां का हूँ मैं मुसाफ़िर,
मर के बारम्बार लौट
आता हूँ मैं सिर्फ़
तुम्हारी ही
ख़ातिर,
ताउम्र कुछ और देखा नहीं तुम्हें देखने के बाद,
ताउम्र कुछ भी चाहा नहीं तुम्हें चाहने के
बाद । दर्पण के इस शहर में खोजता
हूँ मैं सिर्फ़ प्रतिबिम्ब तुम्हारा,
कहने को हर मोड़ पर
झिलमिलाता है
रंगीन सितारा,
देह पर
कोई
भी पोशाक नहीं सजता गेरुआ वसन पहनने
के बाद, ताउम्र कुछ भी चाहा नहीं तुम्हें
चाहने के बाद । इक हाथ बजता
रहा एकतारा, दूसरे हाथ पर
था विष का प्याला,
अनंत पथ के
हैं हम
यात्री, पल भर का विराम कहाँ, तुम्हारे तक
आ रुक जाते हैं सभी जीवन के रास्ते,
किसे ख़बर सुबह कहाँ और शाम
कहाँ, कोई गंत्वय नहीं
भाता तुम से
मिलने
के
बाद, ताउम्र कुछ भी चाहा नहीं तुम्हें चाहने
के बाद।
* *
- - शांतनु सान्याल
29 दिसंबर, 2022
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें