दोनों किनारे है सुबह शाम के एक से मंज़र,
इक डूबे, इक उभरे, आराम किसे आठ पहर,
इक नदी बहती है अक्स ए फ़लक पहन कर,
उतरता है कोई दम ब दम मेरी रूह के अंदर,
इक सड़क जो दूर उफ़क़ तक जाती है तन्हा,
सुदूर मृग तृष्णा है,या अंतहीन नील समंदर,
हद ए नज़र पर है कोई टिमटिमाता जज़ीरा,
आधी रात, जागता सा लगे है शीशे का शहर,
शीशे की है ज़मीं, मोम सा पिघलता आस्मां,
न जाने कौन है वजूद घेरा हुआ अंदर - बाहर,
भीगी चांदनी है राज़दां, नदी सा है जिस्म तेरा,
दिल में ज़रा उतार तो लें अक्स तेरा ठहर कर,
ज़िन्दगी का खारापन रहता है बरक़रार हमेशा,
जागते रहते हैं रात भर, न जाने कितने साग़र ।
* *
- - शांतनु सान्याल
07 दिसंबर, 2022
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 08 दिसंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
इक नदी बहती है अक्स ए फ़लक पहन कर,
जवाब देंहटाएंउतरता है कोई दम ब दम मेरी रूह के अंदर,
इक सड़क जो दूर उफ़क़ तक जाती है तन्हा,
सुदूर मृग तृष्णा है,या अंतहीन नील समंदर,
बहुत सुन्दर सार्थक सृजन ।
ज़िन्दगी का खारापन रहता है बरक़रार हमेशा,
जवाब देंहटाएंजागते रहते हैं रात भर, न जाने कितने साग़र ।//।
आपकी रचनाओं में समाहित भावों का कोई जवाब नहीं।शानदार अभिव्यक्ति के लिए बधाई शान्तनु जी 🙏