11 दिसंबर, 2022

 वायुहीन गुब्बारे - -

उड़ चले हैं कुछ सप्तरंगी गुब्बारे, ऊपर
है खुला आसमान, नीचे बल खाता
हुआ गहरा समंदर, साहिल से
तकते हुए कुछ मुश्ताक़
निगाहें, किस का है
कितना परवाज़,
या तो हवा,
या फिर
ख़ुदा
जाने, सांसों की डोर लिए हाथों में कौन
जा रहा है दूर किनारे किनारे, उड़ चले
हैं कुछ सप्तरंगी गुब्बारे । बूढ़े
बरगद के नीचे है पुरातन
घाट, कुछ नाव खड़े
हैं लंगर डालें, झर
रहे हैं पीले
पत्ते,
कुछ दूर नदी तट पर जल रहा है किसी
का राजपाट, प्राचीन देवालय के
अहाते से सटा हुआ है रेल का
पुल, कुछ देर में गुज़रेगी
दनदनाती हुई सुदूर -
गामी रेल, फिर
निःस्तब्ध
रात्रि
खेलेगी अपना मायावी खेल, नीरव हैं -
टहनियों के कलरव, देवता है बंद
कपाट के अंदर, कुछ देर में
ही जाग उठेगा शीत -
निद्रित हिंस्र
बवंडर,
शेष प्रहर में बिखरे पड़े मिलेंगे वायुहीन
रंगीन गुब्बारे, ख़ामोश है अपनी
जगह आलोक स्तंभ, सड़क
पर बिखरे पड़े हैं पंख -
विहीन ख़्वाब
ढेर सारे ।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

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