09 दिसंबर, 2022

मृगतृष्णा - -

 


अक्सर दो चेहरे घूम जाते हैं विपरीत दिशाओं में,
एक लम्बे अंतराल के बाद, दोनों तरफ रहते हैं
ख़ामोश से शून्य दीवार, अदृश्य उकताहट
की जड़ें फैल जाती हैं अंदर तक, हम
भूल जाते हैं साझा जीवन, असल
में हम ख़ुद ही गढ़ने लगते हैं
अपने भीतर सीमाबद्ध
कारागार, दोनों
तरफ़ रहते
हैं - -
ख़ामोश से शून्य दीवार । ज़रूरत से अधिक की
चाह में हम भटकते रहते हैं मृगतृष्णा के
देश में, उस दौड़ धूप में खो देते हैं
अपने हिस्से की परछाई, एक
दूसरे के प्रति बनते जाते
हैं उदासीन, यहाँ तक
कि भूल जाते हैं
हम खुल के
मुस्कुराना,
धीरे धीरे
घेर
लेती है हमें अंतहीन तनहाई, शिकार की चाह में
ख़ुद ही हो जाते हैं शिकार, दोनों तरफ़ रहते
हैं ख़ामोश से शून्य दीवार ।
* *
- - शांतनु सान्याल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past