फ़र्श पे गिरा है कोई रेशमी रिश्तों का लच्छा,
जितना खींचे नज़दीक अपने, उतना ही
वो उलझता जाए, सर्द रात है सितारों
की लौ भी है कुछ धुंधलायी
सी, चाँद भी है कुछ नील
मद्धम, बुझ चुके हैं
जलते अलाव,
न कुरेदो
दिल
की बस्ती को यूँ बेरहमी से, कि अपने अंदर -
कहीं वो बेपनाह सुलगता जाए । जितना
खींचे नज़दीक अपने, उतना ही वो
उलझता जाए। कुछ शबनमी
ख़्वाब, बोझिल पलकों पे
बूंद बूंद कोई रख
जाए, झर
चुके हैं
सभी गुल ए शबाना, मिल जाए ज़ख़्मी हिरण
को, इक रात का महफूज़ ठिकाना, लब
ए साहिल पे उठ रहें हैं कोहरे के घने
बादल, सुबह से पहले, दिल की
बात कहीं, मेरे दिल ही में
न रह जाए, बिन जले
ही वजूद ए शमा
तमाम रात
क़तरा -
क़तरा, यूँ ही न पिघलता जाए, फ़र्श पे गिरा
है कोई रेशमी रिश्तों का लच्छा,
जितना खींचे नज़दीक
अपने, उतना ही
वो उलझता
जाए - -
* *
- - शांतनु सान्याल
11 दिसंबर, 2022
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