अब लौटना नहीं आसान, चाहे कोई
कितना भी दे आवाज़, जिस
व्यासार्ध से निकलते
थे कभी रास्ते,
उसी बिंदु
पर
थम चुकी है ज़िन्दगी, अब वो दौर
भी नहीं कि बंद दरवाज़ों पर
दे कोई दस्तक, हर कोई
अपने ही दायरे में
है सिमटा
हुआ,
एक सरसरी नज़र की तरह हैं सभी
वाबस्तगी, जिस व्यासार्ध से
निकलते थे कभी रास्ते,
उसी बिंदु पर थम
चुकी है
ज़िन्दगी। हर एक चेहरे में होता है
अप्रकाशित कोई न कोई एक
इश्तेहार, बेवजह कोई
नहीं मिलता है
यहां, क्या
अपने
और क्या पराए, वही लेन देन की -
प्राचीन परम्परा, वही जोड़ -
तोड़ का आदिम बाज़ार,
चाहतों के हैं बहुत
लम्बे से फ़र्द,
कुछ देर
की
है ये दस्त ए गर्मीबाज़ी, फिर हर
एक रिश्ता है बर्फ़ की तरह
पथरीला और सर्द, तब
जलाऊ दरख़्त से
कुछ कम नहीं
होती
अपनी मौजूदगी, जिस व्यासार्ध से
निकलते थे कभी रास्ते,
उसी बिंदु पर थम
चुकी है
ज़िन्दगी।
* *
- - शांतनु सान्याल
13 नवंबर, 2021
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सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
(14-11-21) को " होते देवउठान से, शुरू सभी शुभ काम"( चर्चा - 4248) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
ह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंआपको पढ़ना सुखद है
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंगहन रचना।
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंशानदार रचना
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंबहुत ही उम्दा रचना
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
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