न जाने कितने चेहरे, अपनी ही जगह रह
जाते हैं लौह स्तंभित, और वक़्त की
भीड़ भरी बस, गुज़र जाती है
पलक झपकते ही, हमारे
पास प्रतीक्षा के
अतिरिक्त
कोई
विकल्प नहीं होता, परछाइयां बढ़ कर हो
जाते हैं जब ऊँचे दरख़्त, तब जीवन
खोजता है तंग गलियों में अपने
होने का कोई ठोस सबूत,
उस अनुसंधान में
ज़रूरी नहीं
कि हम
हों
कामयाब, फिर भी खिल उठता है नाज़ुक
ह्रदय बच्चों की तरह, किसी कोने
में खोया हुआ ख़्वाब मिलते
ही, और वक़्त की भीड़
भरी बस, गुज़र
जाती है
पलक
झपकते ही। खोने और पाने का ग्राफ़ - -
अपनी जगह, चढ़ता उतरता रहता
है अनवरत, ज़िन्दगी कभी
थकती नहीं है, कभी
उच्च अक्षांश
पर रहते
हैं हम,
और कभी शून्य रेखा के किनारे रचते हैं
एक महादेश ! कहने को दूर दूर तक
है पसरा हुआ एक अशेष धूसर
मरुभूमि, जब तक सांस
है बाक़ी, वक्षस्थल
की गहराइयों
में ख़त्म
कहां
होती है उम्मीद की नमी, कुछ देर ही
रहता है कुहासे का साम्राज्य,
उजली धूप, हर हाल में
निकल आती है
धुंध के मेघ
छंटते ही,
और
वक़्त की भीड़ भरी बस, गुज़र जाती है
पलक झपकते ही - -
* *
- - शांतनु सान्याल
न जाने कितने चेहरे, अपनी ही जगह रह
जवाब देंहटाएंजाते हैं लौह स्तंभित, और वक़्त की
भीड़ भरी बस, गुज़र जाती है
पलक झपकते ही, हमारे
पास प्रतीक्षा के
अतिरिक्त
कोई
विकल्प नहीं होता, परछाइयां बढ़ कर हो
जाते हैं जब ऊँचे दरख़्त,तब जीवन
खोजता है तंग गलियों में अपने
होने का कोई ठोस सबूत, ,..
बिलकुल सही कहा आपने । जीवन कुछ ऐसा जी है ।
ह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंबहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंआपकी लेखनी से निकली, जीवन दर्शन कराती इस बेहतरीन रचना हेतु साधुवाद एवं सद्भावनाएं।।।।
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
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