बिखरे पड़े हैं पतंग, जन शून्य है दर्शक
वीथी, थम चुके हैं नेपथ्य के सभी
वृंदगान, बुझ चुके हैं रंगीन
चिराग़, थम चुका है
वक्ष स्थल पर
पिघल कर
राग
बिहाग, सभी लेन देन हो चुके पूरे, सभी
नदियां जा मिली अंतिम स्थान, जन
शून्य है दर्शक वीथी, थम चुके हैं
नेपथ्य के सभी वृंदगान।
पथरीली सीढ़ियों
से चाँद भी
उतर
चला है, झील की अथाह गहराइयों में,
हम और तुम जैसे युगों से बैठे हों
यूँ ही रूबरू, ख़ामोश, चाँदनी
की परछाइयों में, रूह को
छू रही है तुम्हारी
संदली सांसें,
ब्रह्माण्ड
का
अस्तित्व यूँ ही बना रहे न रहे, मुझे
यक़ीन है, इन अमर पलों का
कभी न होगा अवसान,
जन शून्य है दर्शक
वीथी, थम चुके
हैं नेपथ्य
के सभी
वृंदगान।
* *
- - शांतनु सान्याल
13 अक्तूबर, 2021
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बहुत सुंदर रचना शांतनु जी, "हम और तुम जैसे युगों से बैठे हों
जवाब देंहटाएंयूँ ही रूबरू, ख़ामोश, चाँदनी
की परछाइयों में, रूह को
छू रही है तुम्हारी
संदली सांसें,
ब्रह्माण्ड
का
अस्तित्व यूँ ही बना रहे न रहे, मुझे
यक़ीन है, इन अमर पलों का
कभी न होगा अवसान"---बहुत ही सुंदर
ह्रदय तल से आभार नमन सह।
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