सुबह सरका गया, देह से लिपटे
सारे लिहाफ़, बिखरे हुए हैं
फ़र्श पर कुछ सुरमई
बूंदें, ज़िन्दगी
ढूंढती है
फिर
वही क़ीमती सुरमेदानी, दर्पण
मुस्कुराता है छुपा कर ओंठों
पर इक रहस्मयी गहराई,
इत्र कब से है गुम
हवाओं में, तैरती
है केवल
पलकों
तले
गंध की परछाई, इक नशा है
या कोई ख़ुमार ए तिलिस्म,
खींचे लिए जाए न
जाने कहां, राह
तो लगे है
ज़रा -
ज़रा सा पहचाना, मंज़िल है
मगर अनजानी, बिखरे
हुए हैं फ़र्श पर कुछ
सुरमई बूंदें,
ज़िन्दगी
ढूंढती
है
फिर वही क़ीमती सुरमेदानी।
* *
- - शांतनु सान्याल
27 अक्टूबर, 2021
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(२८-१०-२०२१) को
'एक सौदागर हूँ सपने बेचता हूँ'(चर्चा अंक-४२३०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
दर्पण
जवाब देंहटाएंमुस्कुराता है छुपा कर ओंठों
पर इक रहस्मयी गहराई,
इत्र कब से है गुम
हवाओं में, तैरती
है केवल
पलकों
तले
गंध की परछाई
बहुत सुन्दर... गहन भाव।