07 अक्टूबर, 2021

निःशब्द अनुभूति - -

मैं आज भी वहीं हूँ खड़ा, जहाँ से निकलती
थी एक धुंधली सी रहगुज़र, न जाने
कितनी बार उजड़ कर बसता
रहा, उस मोड़ के आगे
जो झिलमिलाता
सा है एक
ख़्वाबों
का शहर, तुम आज भी हो वहीं पर खड़े,
जहाँ पर ज़मीन को छूता सा लगे
आसमान, शायद तुम्हारे हाथ
में है कहीं ऋतु चक्र का
बिंदु कांटा ! बिद्ध
कर जाता है
अंधेरे में
भी
स्मृतियों का खंडहर, मैं आज भी वहीं
हूँ खड़ा, जहाँ से निकलती थी एक
धुंधली सी रहगुज़र। कांपते
उंगलियों से पूछते हैं
शब्द, निःशब्द
हो जाने
की
वजह, किस तरह से दिखाएं अपने - -
मौजूदगी का दस्तावेज़, असमय
के तूफ़ां से पूछ लेना यूँ ही
कभी, सब्ज़ पत्तों
के झर जाने
की वजह,
दूर तक
है लहरों का साम्राज्य, द्वीप का कोई
भी नामोनिशां बाक़ी नहीं, न जाने
किस कोण से आया था, किस
ओर चला गया, समय का
वो अनाहूत बवंडर,
मैं आज भी
वहीं हूँ
खड़ा,
जहाँ से निकलती थी एक धुंधली सी - -
रहगुज़र।
* *
- - शांतनु सान्याल

4 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (08 -10-2021 ) को 'धान्य से भरपूर, खेतों में झुकी हैं डालियाँ' (चर्चा अंक 4211) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज शुक्रवार 08 अक्टूबर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है....  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. वजह, किस तरह से दिखाएं अपने - -
    मौजूदगी का दस्तावेज़, असमय
    के तूफ़ां से पूछ लेना यूँ ही
    कभी, सब्ज़ पत्तों
    के झर जाने
    की वजह,
    बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति!

    जवाब देंहटाएं
  4. तुम आज भी हो वहीं पर खड़े,
    जहाँ पर ज़मीन को छूता सा लगे
    आसमान, शायद तुम्हारे हाथ
    में है कहीं ऋतु चक्र का
    बिंदु कांटा ! बिद्ध
    कर जाता है
    अंधेरे में
    भी
    स्मृतियों का खंडहर, जीवन की अनुभूतियों का अनोखा अहसास । एक सुंदर सृजन के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएं शांतनु जी ।
    मैंने अपने ब्लॉग के पहले जन्मदिन पर एक पोस्ट डाली है,और आप मेरी रचना के पहले दिन के टिप्पणीकार हैं, आप के लिए एक गीत लिखा है,आप ब्लॉग पर जरूर पधारें आपको मेरा आभार और अभिनंदन ।

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