02 अक्टूबर, 2021

सिमटती नदी का कगार - -

चाँदनी मोम सी पिघल गई, उठा
गया कोई रात का झिलमिल
शामियाना, हल्का सा
ख़ुमार है बाक़ी,
बहुत निःसंग
सा लगे
डूबता
हुआ शुक्रतारा, अहाते का पेड़ है - -
ख़ामोश, लुटा कर अपना सब
हरसिंगार, कोई दस्तक
दहलीज़ तक आ कर
लौट जाती है
बार बार,
एक
पगडण्डी है, जो दूर तक जाती है न
जाने कहाँ, ढूंढती हुई अनाम
नदी का किनारा, बहुत
निःसंग सा लगे
डूबता हुआ
शुक्रतारा।
इस
गांव से नदी को रूठे हुए एक सदी
हो गई, फिर भी वो आज भी
है शामिल, दंतकथाओं
में कहीं, बरगद
और घाट
छूट
जाते हैं दूर समय के साथ, फिर भी
नदी बहती है हमारे बहुत
अंदर तक हर्ष और
व्यथाओं में कहीं,
काश उसे
स्पर्श
करें, तो उड़ेल दें हम सजल जीवन
सारा,  बहुत निःसंग सा लगे
डूबता हुआ शुक्रतारा।  
* *
- - शांतनु सान्याल
Art - Gangnendranath Tagore

3 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (3-10-21) को "दो सितारे देश के"(चर्चा अंक-4206) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा


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