जन अरण्य में खोजता हूँ एक अदद परछाइयों का चेहरा, न जाने
कहाँ खो गए चाहने वालों
की जमात, एक मृग -
तृष्णा से कुछ
कम नहीं
ताउम्र
साथ रहने की बात, किताबों में यूँ
तो बहुत कुछ लिखा था, मरु
उद्यान से ले कर स्वर्ग की
अप्सराओं के असंख्य
किस्से, यहाँ भी हैं
एकाकी वहाँ
भी पसरा
हुआ
है सघन कोहरा,जन अरण्य में
खोजता हूँ एक अदद
परछाइयों का
चेहरा ।
इस
राह के मुसाफ़िर का सफ़र कभी
नहीं होता पूरा, गन्तव्य से भी
कहीं आगे है यायावर
यात्रियों का डेरा,
फिर भी जी
चाहता है
कि
तुम चलो मेरे संग दूर तक, अंतिम
प्रहर तक थामे रखो निःश्वास
बंधन, अभी तक क्षितिज
पर है अंधेरे का शख़्त
पहरा, जन अरण्य
में खोजता हूँ
एक अदद
परछाइयों
का
चेहरा । सहस्त्र अभिलाष अंतहीन
स्वप्न के रेगिस्तान, बहोत कुछ
पाने की चाहत का होता
नहीं कोई अवसान,
कभी ज़रा सी
चीज़ पर
मिल
जाए खोया हुआ ख़ज़ाना, और
कभी बहुत कुछ मिलने के
बाद भी जीवन लगे
अनंत वीराना,
शून्य के
अंदर
ही
रहता है गुमशुदा कोलाहल, ख़ुद
के भीतर ही रहता है मौजूद
एक झील अथाह गहरा,
जन अरण्य में
खोजता हूँ
एक
अदद परछाइयों का चेहरा ।
- - शांतनु सान्याल
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