मध्य रात्रि, निस्तब्ध सारा शहर, बिखरे पड़े हैं प्राचीर के
पुरातन पत्थर,
बाह्य परत
पर बूंद
बूंद
ओस कण, गहन अंतरतम में तुम
बांध चुके हो स्थायी घर, मध्य
रात्रि, निस्तब्ध सारा
शहर । चिर बंदी
होना चाहे
सदियों
का
बंजारापन तुम्हारे वक्षःस्थल के
अंदर, शिराओं से हो कर
बहता जाए प्रणय
रस, अनंत
पथ की
ओर
अग्रसर, देह प्राण डूब चले हैं
क्रमशः, सुदूर खींचे लिए
जाए निःसीम तुम्हारे
नयन गह्वर, मध्य
रात्रि, निस्तब्ध
सारा
शहर । न तुम अब तुम हो न मेरा
कोई पृथक अस्तित्व, एक
दूजे से मिल कर अब
हैं एकाकार, अपने
लिए इस पल
में नारी
पुरुष
सब
एक बराबर, अधरों के मिलन बिंदु
पर जीवन रहता है अजर
अमर, कोई भेद नहीं
इस क्षण क्या
सुधा और
क्या
प्राणघातक ज़हर, मध्य रात्रि,
निस्तब्ध सारा
शहर ।।
- - शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें