05 अप्रैल, 2025

कहाँ हूँ मैं - -

एक अद्भुत अनुभूति से गुज़र रहा हूँ मैं,

अपनी ही परछाई से जैसे डर रहा हूँ मैं,

यूँतो मुस्कुराते हुए लोग हाथ मिलाते हैं,
डूबते दिल की गहराई से उभर रहा हूँ मैं,

रात भर सोचता रहा रुक ही जाऊँ यहीं,
कभी एक सायादार गुलमोहर रहा हूँ मैं,

राजपथ के दोनों तरफ़ हैं विस्मित चेहरे,
आँखों में फिर कोई ख़्वाब भर रहा हूँ मैं,

न कोई जुलूस है, न ही विप्लवी शोरगुल,
जनारण्य के मध्य, एक खंडहर रहा हूँ मैं,

धुँधली साया मां की आवाज़ से बुलाए है,
घर लौट जाऊं, मुद्दतों दर ब दर रहा हूँ मैं,

यक़ीन नहीं होता अपनी ही याददाश्त पर,
ये वही जगह है दोस्तों कभी इधर रहा हूँ मैं,
- - शांतनु सान्याल


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