द्विधाहीन हो लौट जाओ अपने परिधि के अंदर, अभी तपने दे मुझे किसी जनशून्य धरा में
आदिम उल्का पिंड की तरह, बसने दे
हृदय तट पर हिमयुग के उपरांत
का नगर, द्विधाहीन हो लौट
जाओ अपने परिधि
के अंदर । उभरने
दे अंतर्मन से
सुप्त नदी
का
विलुप्त उद्गम, सरकने दे मोह का यवनिका दूर
तक, कोहरे में ढके हुए हैं अनगिनत संभ्रम,
न छुओ इस देह को अतृप्त चाह के
वशीभूत, स्वप्न के सिवाय कुछ
भी नहीं है ये आभासी
समंदर, द्विधाहीन
हो लौट जाओ
अपने परिधि
के अंदर ।
इस
सुलगते सतह पर हैं असंख्य नागफणी के जंगल,
शिराओं में बहते हैं जिनके बूंद बूंद हलाहल,
बहुत कठिन है इस पथ से गुजरना, लौट
जाओ यहीं से, सहस्त्र योजन दूर है
क्षितिज पार का वो अनजाना
शहर, द्विधाहीन हो
लौट जाओ
अपने
परिधि के अंदर । जन्म जन्मांतर के इस सांप
सीढ़ी का अंत नहीं निश्चित, कभी शीर्ष
पर खिलती है नियति सोलह सिंगार
लिए, कभी वसुधा के गोद में
पड़े रहते हैं सपने सूखे
पुष्पों के हार लिए,
फिर भी सूखती
नहीं हृदय
सरिता,
बहती
जाती है अनवरत मिलन बिंदु की ओर, मौन
मनुहार लिए, लौट आना उस दिन जब
बुझ जाए अग्निमय बवंडर,अभी
द्विधाहीन हो लौट जाओ
अपने परिधि के
अंदर ।।
- - शांतनु सान्याल
अत्यन्त सुन्दर
जवाब देंहटाएंकभी ना सूखे हृदय सरिता ।। जीवंत अंकन भावावेग का।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
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