12 अप्रैल, 2025

कुछ पल और साथ रहते - -

उत्सव का कोलाहल थम जाता है जोश

का ज्वार उतरते ही, अंदर महल की
दुनिया ढूँढती है चाँदनी रात में
गुमशुदा सुकूँ का ठिकाना,
उठ जाती है तारों की
महफ़िल भी शेष
पहर, बुझ
जाते
हैं सभी चिराग़ अंधकार के पिघलते ही,
उत्सव का कोलाहल थम जाता है
जोश का ज्वार उतरते ही ।
बिखरे पड़े हैं बेतरतीब
से गुज़रे पलों के
ख़ूबसूरत
मोती,
बस एहसास के चमक दिल में रहे बाक़ी,
क्षितिज पार कहीं आज भी खिलते
हैं अभिलाष के नाज़ुक से फूल,
हृदय कमल के बहुत अंदर
रहती है सुरभित कोई
ज्योति, मालूम है
मुझे नदी का
अपने आप
सिमट
जाना, परछाई भी संग छोड़ जाती है
चाँदनी रात के ढलते ही, उत्सव
का कोलाहल थम जाता है
जोश का ज्वार
उतरते ही ।
- - शांतनु सान्याल




2 टिप्‍पणियां:

  1. उत्सव जो कोलाहल से उपजा है, उसका यही हाल होना है, एक उत्सव मौन से उपजता है, तब जोश कभी कम नहीं होता, बढ़ता हो जाता है

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