07 जुलाई, 2025

शीर्षक विहीन - -

न जाने किस जानिब जाती हैं दुआओं की राहें,

इसी इंतज़ार में उम्र गुज़री शायद वो लौट आएं,

कहीं दूर वादियों में उतरते हैं घने बादलों के डेरे,
बियाबां के बाशिन्दे आख़िर जाएं तो कहाँ जाएं,

फूलों की रहगुज़र में हम छोड़ आए दिल अपना,
कोहसारों के दरमियां भटकती हैं ख़ामोश सदाएं,

धुंध की तरह बिखरी हुई हैं हरसू दिलनवाज़ यादें
जी चाहता है फिर इक बार वहीं रेत के घर बनाएं,
- -  शांतनु सान्याल

7 टिप्‍पणियां:

  1. सुं नज़्म ।
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ८ जुलाई २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. रेत के घर तो टूट जाते हैं पर उनकी यादें ताउम्र साथ रहती हैं

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  3. बहुत समय बाद कविता पढ़ी। अच्छी लिखी है।

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