उस मोड़ पे कहीं था मन्नतों वाला दरख़्त, जिसकी डालियों से लटके रहते थे
मुरादों के रेशमी डोर, राहगीर
जिसकी परछाई में पाते
थे पल भर का सुकून,
एक स्रोत जहाँ
हर चेहरा
निखर
जाए, न वो कुआं ही रहा, न वो प्रतिबिंब,
न वो चौबारा जहाँ से कभी उठती
थी सांझे चूल्हों की महक, न
जाने कितने हिस्सों में
बँट चुका समुदाय
हमारा, चेहरे
से चमक
ही नहीं,
बहुत
कुछ छीन लेता है हर पल बदलता हुआ
वक़्त, उस मोड़ पे कहीं था मन्नतों
वाला दरख़्त । वही वयोवृद्ध
वट वृक्ष, वही नदी का
किनारा, उजान की
ओर लौटतीं
नौकाएं,
सांध्य
प्रदीप के साथ गूंजता पक्षियों का कलरव,
शंख बेला में लौटते हुए गोवंश, सब
कुछ आज भी हैं विद्यमान, बस
अनुभूति कहीं खो सी गई
है, रिश्तों के दरमियान
अब वो गर्मजोशी
न रही, लोग
हज़ार
हिस्सों में बँट चले, अपने अपने दायरे में
सिमटे हुए, अपनी दुनिया में हैं सिर्फ़
आसक्त, उस मोड़ पे कहीं था
मन्नतों वाला दरख़्त ।
- - शांतनु सान्याल
सुन्दर
जवाब देंहटाएंहमारे पास होकर भी हम से कही दूर जा खो गई है हमारी अनुभूति
जवाब देंहटाएंमशीन होते लोग अनुभूति से रिक्त तो होंगे ही न।
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण अभिव्यक्ति ,र।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १ अगस्त २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
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