23 जुलाई, 2025

निरुत्तर पल - -

सारा शहर है गहरी नींद में, झींगुर ध्वनि

के मध्य झर रही हैं श्रावणी बूंदें,
निस्तब्धता चीरती हुए रात
काँपते हाथों हिलाती है
साँकल, पूछती है
न जाने किस
का पता,
देह
पड़ा रहता है बिस्तर पर निर्जीव काठ सा,
उन अस्फुट शब्दों में ज़िन्दगी खोजती
है मायावी आवाज़ को, उठ कर
छूना चाहती है दहलीज़ से
लौटती हुई एक अनाम
ख़ुश्बू को, रोकना
चाहती है उसे
अपने साँसों
के अंदर,
लेकिन
रात कहाँ रुकती है किसी के रोके, उस
का सफ़र क्षितिज तक रहेगा जारी,
किसी तरह उठ कर कपाट
खोलता हूँ, कहीं कोई
पद चिन्ह ग़र दिखे,
भीगे आँगन में
कुछ सफ़ेद
फूल बिखरे हुए हैं बेतरतीब से, रात अपने
साथ कदाचित सभी ख़्वाब भी समेट
ले गई, दूरस्थ पहाड़ों से उठ रहा
है धुंआ या वाष्प कण, किसे
ख़बर ? कुछ प्रश्न रहते
हैं चिर निरुत्तर ।
- - शांतनु सान्याल

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