23 मई, 2025

अपना अपना बाइस्कोप - -

गुज़रे थे कभी हम भी, गुलमोहरी रहगुज़र से,

बहुत कुछ खो के पाया, ज़िन्दगी के सफ़र से,

कभी चाँद रात, तो कभी अंधकार मुसलसल,
चंद ख़्वाब सजाए बचा के दुनिया के नज़र से,

भटका किए यूं तो भीड़ भरी राहों में दर ब दर,
कभी रहे मुक्कमल बेख़बर, अपने ही शहर से,

सुबह ओ शाम के दरमियां, बदलते रहे सफ़ात,
किताब ए जीस्त ढूंढ लाए मुहोब्बत के डगर से,

सलीब रहा अपनी जगह जिस्म ओ जां नदारत,
अक्सर हम भी दौड़े मसीहाई की झूठी ख़बर से,

न जाने कौन कायाकल्प की अफ़वाह उड़ा गया,
हर शख़्स है मुन्तज़िर जीस्त बहाली के असर से, 

दिखाते हैं लोग अपने बाइस्कोप से जन्नती रास्ता,
इस पागलपन को ज़मीं पे लाए हैं जाने किधर से,
- - शांतनु सान्याल



4 टिप्‍पणियां:

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past