गुज़रे थे कभी हम भी, गुलमोहरी रहगुज़र से, बहुत कुछ खो के पाया, ज़िन्दगी के सफ़र से,
कभी चाँद रात, तो कभी अंधकार मुसलसल,
चंद ख़्वाब सजाए बचा के दुनिया के नज़र से,
भटका किए यूं तो भीड़ भरी राहों में दर ब दर,
कभी रहे मुक्कमल बेख़बर, अपने ही शहर से,
सुबह ओ शाम के दरमियां, बदलते रहे सफ़ात,
किताब ए जीस्त ढूंढ लाए मुहोब्बत के डगर से,
सलीब रहा अपनी जगह जिस्म ओ जां नदारत,
अक्सर हम भी दौड़े मसीहाई की झूठी ख़बर से,
न जाने कौन कायाकल्प की अफ़वाह उड़ा गया,
हर शख़्स है मुन्तज़िर जीस्त बहाली के असर से,
दिखाते हैं लोग अपने बाइस्कोप से जन्नती रास्ता,
इस पागलपन को ज़मीं पे लाए हैं जाने किधर से,
- - शांतनु सान्याल
इस पागलपन को ज़मीं पे लाए हैं जाने किधर से,
- - शांतनु सान्याल
सुंदर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 25 मई 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत खूब!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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