19 सितंबर, 2018

जाने क्यों - -

सभी कुछ है सांस लेता हुआ मेरे आसपास,
फिर भी, न जाने क्यों रहता है ये दिल
उदास, वक़्त की सांप सीढ़ियों ने
मुझे, हर मोड़ पे, गिर कर
संभलना है सिखाया,
फिर भी न जाने
क्यों अभी
तक
हैं नाज़ुक मेरे एहसास। घर से मंदिर तक
का सफ़र, यूँ तो है बहोत ख़ुशगवार,
मुश्किल तो तब होती है, जब
मुख़ातिब हों उजड़े चेहरों
के नक़्क़ास। शहर
की भीड़ में
सिर्फ़
मैं ही न था तनहा, न जाने कितने लोग -
यूँ ही भटकते मिले अपने ही घरों के
आसपास। अजीब सा नशा है
उस अनदेखे वजूद का,
खो देते हैं दानिशवर
भी अक्सर,
अपने
होश वो हवास। फिर भी न जाने क्यों, ये
दिल रहता है उदास। 

* *
- शांतनु सान्याल

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