मुखौटों का शहर है आरसी का
यहाँ कोई काम नहीं, परत
दर परत हैं न जाने
कितने ही छुपे
रंग - रोगन,
मौज
ए रौशनी का यहाँ कोई आख़री
मुकाम नहीं। फिर सज चले
हैं गली कूचों के सभी
बेरंग दरो दिवार,
लेकिन परदे
के ओट
में, खुशियों का कोई नाम नहीं।
वही बदहवास चेहरे तकते हैं
घिसी पिटी इश्तहारों को,
ईद हो या दिवाली
झुके कमर को
लेकिन
आराम नहीं। दहलीज़ में न जाने
कौन रंगीन दावतनामा छोड़
गया, कहने को वो शख़्स
अपना है लेकिन
दुआ - सलाम
नहीं।
* *
- शांतनु सान्याल
यहाँ कोई काम नहीं, परत
दर परत हैं न जाने
कितने ही छुपे
रंग - रोगन,
मौज
ए रौशनी का यहाँ कोई आख़री
मुकाम नहीं। फिर सज चले
हैं गली कूचों के सभी
बेरंग दरो दिवार,
लेकिन परदे
के ओट
में, खुशियों का कोई नाम नहीं।
वही बदहवास चेहरे तकते हैं
घिसी पिटी इश्तहारों को,
ईद हो या दिवाली
झुके कमर को
लेकिन
आराम नहीं। दहलीज़ में न जाने
कौन रंगीन दावतनामा छोड़
गया, कहने को वो शख़्स
अपना है लेकिन
दुआ - सलाम
नहीं।
* *
- शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें