30 अक्तूबर, 2018

बाक़ी अब कुछ भी नहीं - -

जो कुछ भी था उसमे में बाक़ी,
 ढलती रात ने ले लिया,
कुछ बूँद छुपाए
सीने में
आकाश तकता रहा ज़मीं को, -
मुसलसल सूनापन छोड़,
सभी कुछ बरसात
ने ले लिया।
अंतहीन कोई प्यास है वो, या  -
मेरी अनबुझ आरज़ू ! नफ़स
ख़्वाबों से छूटे मगर,
कुछ ख़्वाहिशात
ने ले लिया।
उम्र भर हम को न समझ आए
वो सभी राज़े तक़ाज़ा,
महसूल के बहाने
कुछ ज़ियादा
ही उसकी
ज़ात ने ले लिया। हम आज भी - -
उसी घाट पर हैं बैठे मुंतज़िर
निगाह लिए, जन्मों का
इम्तहान एक ही
पल में रूहे
निजात
ने ले लिया।  - -
* *
- शांतनु सान्याल
 


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