01 नवंबर, 2018

ग़र कभी गुज़रो - -

अब पूछते हैं वो मेरा गुमशुदा
ठिकाना, जब याद नहीं
मुझको तारीख़ ए
रवाना।
वहीँ मोड़ पे कहीं हम सब कुछ
छोड़ आए, कोई याद हो
बाक़ी तो यूँ ही भूल
जाना।
उम्र की बदहाल सड़क ही तो - -
है ज़िन्दगी, कभी अपनों
ने लूटा, कभी बेदर्द
ज़माना।
सभी सब्ज़ दरख़्त सूख गए
अपने आप, दरअसल
बारिश तो था सिर्फ़
इक बहाना।
इस ज़मीं के सीने में सोतों - -
की कमी नहीं, मुश्किल
है लेकिन झरनों
को ढूंढ लाना।
हर कोई जैसे है अपने ही - - -
दायरे में गुम, आशना
चेहरा भी लगे यहाँ
अनजाना।

* *
- शांतनु सान्याल

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