21 नवंबर, 2018

प्रवासी मन - -

सूखते कांटेदार बेलों के बीच अभी तक हैं
बाक़ी कुछ गुलाबी मुस्कान, कोई
आए या न आए, हर चीज़ हो
जैसे यथावत, खिलता
हुआ अपने स्थान।
उम्मीद के
फूल
शायद कभी मुरझाते नहीं,चाहे पतझर हो
या मधुऋतु, क्या धूप और क्या छाँव,
गेरुआ मन हर पल एक समान।
जलविहीन फल्गु तट हो या
ज्वलंत मणिकर्णिका -
घाट, उन्मुक्त -
पाखी, सदा
प्रवासी,
प्राणों में बाँधे अंतहीन उड़ान। - - - - - - -

* *
- शांतनु सान्याल  

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