17 फ़रवरी, 2023

आरज़ू ए परवाज़ - -

पिरोया था जिसे सांसों के डोर से वो
जज़्बा ए हार का किसी दिन
टूटना था लाज़िम, वक़्त
के हिंडोले की रफ़्तार
को कोई रोके भला
कैसे, भीड़ भरे
मेले में
हाथों
से हाथ छूटना था लाज़िम, जज़्बा ए
हार का किसी दिन टूटना था
लाज़िम । टूटे  हुए पंख थे
 हथेलियों पर, क्षितिज
पार की थी आरज़ू
ए परवाज़, सभी
रंग धुल गए
वक़्त के
संग,
मौसमों की तरह रुख़ बदलते रहे - -
सभी आश्ना चेहरे, वही हँस
हँस कर क़त्ल करने का
ख़ूबसूरत अंदाज़,
क्षितिज पार
की थी
आरज़ू ए परवाज़ ।
* *
- - शांतनु सान्याल


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