जनशून्य है उत्सव प्रांगण, स्थिर
आकाशमुखी झूले, दरख़्त की
टहनियों पर उलझी हुई
कटी पतंग, खुले
आकाश पर
नक्षत्रों
का अनवरत उत्थान - पतन, हर एक
समारोह का होता है समापन।
कुछ इच्छाएं रहती हैं
यथावत कोरी,
देह गंध से
मुक्त !
कुछ
रहस्यमयी भावनाओं के शीर्षक नहीं
होते, आँखों में ही होता है उनका
जनम - मरण, हज़ार दंड
ले कर सीने में जीवन
का होता है असंख्य
बार दहन, हर एक
समारोह का
होता है
समापन । राजपथ के दोनों पार खड़े हैं
मौन दर्शक, पांवों में बेड़ी बांधे गुज़र
रहे हैं अनगिनत व्यथित जीवन,
बहुत कुछ देख कर भी हम
बहुत कुछ देख नहीं पाते,
साझा कुछ भी नहीं,
बस इक स्वांग
का है यहाँ
प्रचलन,
हर
एक समारोह का होता है समापन ।
- - शांतनु सान्याल
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