05 फ़रवरी, 2023

मुलाक़ात - -


मिलता हूँ मैं रोज़ मेरी ही हम ज़ात से
है उन्हें  ग़र गिला, तो रहे इस बात से
तंग है ज़िन्दगी इस बेवजह बरसात से,

वो निकलते हैं, दबे क़दम इस तरह -
कांपती हों साँसें, रूह के ज्यों निज़ात से,

इस गली ने कभी उजाला नहीं  देखा -
चाँद है बेख़बर  दर्दो अलम जज़्बात से,

मुस्कुराता तो हूँ मैं छलकती आँखों से
हासिल क्या आख़िर इस अँधेरी रात से,

खोजते हैं क्यूँ लोग,चेहरे पे राहतें, उन्हें
फ़र्क नहीं पड़ता जीने मरने की बात से,

इन मक़बरों में दिए जलाएं, कि बुझाएं
हैं गहरी नींद में,जुदा सभी तासिरात से,

कह दो ये चीखें हैं किसी और शै की -
किसे है फ़िक्र आख़िर मजरुहे हालात से,

-- शांतनु सान्याल


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