26 फ़रवरी, 2023

लकीरें - -

आकाश पार बहती हैं अदृश्य
कुछ सप्तरंगीय प्रवाहें,
एक स्वप्नमयी
पृथ्वी शायद
है कहीं
अन्तरिक्ष में, सुप्त शिशु के
मंद मंद मुस्कान में
देखा है उसे कभी,
नदी के बिखरे
रेत में
किसी ने लिखा था पता - -
उसका बहुत कोशिश
की, पढ़ न पाए,
लकीरें जो
वक़्त ने
मिटा दिए, चेहरें में उभर
आईं काश ! उठते
ज्वार की
लहरें
इन्हें भी बहा लेतीं, अर्घ्य
में थे कुछ शब्द जो
कभी वाक्य न
बन पाए,
कुछ बूंदें पद चिन्हों में सिमट
कर खो गए, वो कभी मेघ
न बन पाए सुना है ये
नदी गर्मियों में
कगार बदल
जाती है
फिर
कभी मधुमास में, कहीं और
किसी किनारे मिलेंगे
तुमसे  - -
--- शांतनु सान्याल

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01-07-2021को चर्चा – 4,112 में दिया गया है।
    आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद सहित
    दिलबागसिंह विर्क

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