जिसे हमनफ़स समझा, वही मेरा क़ातिल निकला,
साज़िश ए मसलूब में, मुक्कमल शामिल निकला,
बहोत आसान है, ग़ैरों पर तंज़ से उँगलियाँ उठाना,
लतीफ़ा ए अक्स मेरा उम्र भर का हासिल निकला,
झुकना था लाज़िम, वो मुहोब्बत का सूरजमुखी था,
सुलगती राहों में, हर एक मुसाफ़िर बोझिल निकला,
किताब की परछाई में कहीं, ढूंढता रहा ज़िन्दगी को,
जिसे रहनुमा सोचा वही आदमी नाकामिल निकला,
गिनता रहा बेशुमार संग ए मील को, गाम दर गाम,
घर के पास ही, मासूम मुस्कानों का मंज़िल निकला,
बंदरगाह कभी बंद होता नहीं, ग़र ज़मीर हो चिराग़ाँ,
डूबने के बाद आंख खुली तो, संग ए साहिल निकला,
- - शांतनु सान्याल © It's subject to copyright.
अर्थ :
हमनफ़स - क़रीबी, साज़िश ए मसलूब - सलीब पे
चढ़ाने का षड्यंत्र, नाकामिल - अधूरा,
संग ए मील - मील का पत्थर, मुक्कमल - पूर्ण
गाम दर गाम - हर एक क़दम पे,
ज़मीर - अंतर्मन,
07 फ़रवरी, 2023
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जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 8फरवरी 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(०९ ०२-२०२३) को 'एक कोना हमेशा बसंत होगा' (चर्चा-अंक -४६४०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंकिताबों की परछाईं में कहीं ढूंढ़ता रहा जिन्दगी को, जिसे रहनुमा समझा वही नाकामिल निकला.. वाह
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंसुंदर अभिव्यक्ति
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