पहाड़, अरण्य, नदी, घुमावदार पगडंडियां;
धूसर जीवन के ऊपर पड़ी रह जाती हैं
कुछ उड़ते हुए बादलों की परछाइयां,
पड़े रह जाते हैं टूटे हुए मिट्टी
के खिलौने, पेड़ के तनों
में लिखे हुए कुछ
कच्चे प्रीत की
कहानियां,
धूसर
जीवन के उपर पड़ी रह जाती हैं कुछ उड़ते
हुए बादलों की परछाइयां। इक अजीब
सा ख़ालीपन रहता है बहुत कुछ
पाने के बाद, पल्लव विहीन
दरख़्त देखते हैं शून्य
आकाश की तरफ
शीत ऋतु के
गुज़र जाने
के बाद,
हम
खोजते रहते हैं ख़ुद को ज़र्द पत्तों में कहीं,
निःस्तब्ध अंधेरे में कहीं खो जाती हैं
एहसास की आदिम घाटियां,
धूसर जीवन के उपर
पड़ी रह जाती हैं
कुछ उड़ते
हुए
बादलों की परछाइयां। - -
* *
- - शांतनु सान्याल
03 फ़रवरी, 2023
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 05 फरवरी 2023 को साझा की गयी है
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
दिल की गहराइयों से शुक्रिया।
हटाएंआदरणीय शांतनु सन्याल. जी,
जवाब देंहटाएंनमस्ते 🙏❗️
अमूर्त प्रतीकों के साथ मूर्त सचाईयों को उकेरने का आपका निराला अंदाज है. साधुवाद ❗️
मेरी आवाज में संगीतबद्ध मेरी रचना 'चंदा रे शीतल रहना' को दिए गए लिंक पर सुनें और वहीं पर अपने विचार भी लिखें. सादर आभार 🌹❗️--ब्रजेन्द्र नाथ
रह जाती हैं स्मृति कि परछाइयाँ ...
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया।
जवाब देंहटाएं