एक अंतर्निहित सुरंग खोजती है अंतिम प्रस्थान, प्रतिबिम्ब से चेहरे को अलग करना नहीं आसान,
शरीर और छाया के मध्य रहती है जन्मों की संधि,
उदय अस्त अनवरत, सृष्टि का नहीं होता अवसान,
महा शून्य में बह रहे हैं, जन्म मृत्यु के अग्नि वलय,
इसी धरा में है अभिशप्त जीवन, यहीं मुक्त बिहान,
मायाविनी रात्रि में खोजता हूँ व्यर्थ का अज्ञातवास,
मोहक जुगनू कभी हथेली पर और कभी अंतर्ध्यान,
अनगिनत प्रयास फिर भी आँचल में शून्य निवास,
विश्व भ्रमण के बाद भी, स्वयं से व्यक्ति है अनजान,
- - शांतनु सान्याल
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" शनिवार 30 मार्च 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
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