सूखे किनार समेटे इक उदास नदी तलाशती है गुमशुदा जलधार को, रेत की घड़ी वक़्त
का पीछा निरंतर करती रही, फिर
भी न मिला सजल भूमि का
का वो टुकड़ा, जहां
कभी उगते थे
खुशियों के
मासूम
पौधे,
सजते थे पलकों तले जुगनुओं की नीलाभ रौशनी,
समय छीन लेता है चेहरे की नमी, अंततः
इक रेत का द्वीप हासिल होता है
मझधार को, सूखे किनार
समेटे इक उदास नदी
तलाशती है गुमशुदा
जलधार को ।
सोचने से
कहीं
होती है बरसात, स्मृतियों के काग़ज़ी नाव अनबहे
पड़े रहते हैं बंद खिड़कियों के आसपास, कोई
आवाज़ नहीं देता लेकिन हमें सुनाई देता है,
कदाचित दस्तक भी उड़ते हैं ले कर
तितलियों के पंख उधार, आँखों
की मृत नदी खोजती है
विलुप्त वृष्टि की
संभावना,
चलो
फिर दोबारा लिखें महकते हुए ख़त रूठे हुए बहार
को, सूखे किनार समेटे इक उदास नदी तलाशती
है गुमशुदा जलधार को ।
- - शांतनु सान्याल
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