08 मार्च, 2024

सुबह की दस्तक - -

एक अद्भुत निस्तब्धता ओढ़े रात गुज़रती है

सहमी सहमी सी, पड़े रहते हैं राह में
सघन कोहरे के चादर, कुछ ओस
की बूंदें, मकड़जाल के उस
पार बिखरे रहती हैं कुछ
अनकही भावनाएं,
कुछ असमाप्त
कविताएं,
तमाम
ज़ख़्म
सुबह के साथ भर चले हैं, फिर दहलीज़ पर
नज़र आते हैं ख़्वाबों के निशान, ज़िन्दगी
दोबारा संवरती है, एक अद्भुत
निस्तब्धता ओढ़े रात
गुज़रती है । सीने
पर हैं जीवित
कुछ अदृश्य
छुअन की
गहराई,
कुछ
उष्ण सांसों की गर्माहट, जिस्म में घुलती हुई
सजल मेघ की परछाई, रंध्र रंध्र से उठता
हुआ मायाविनी गंध, बिखरा हुआ
अस्तित्व किसी और के सांचे
में ढलता सा लगे है, इक
ख़ूबसूरत अंदाज़ में
फिर रूह की
दुनिया
निखरती है, एक अद्भुत निस्तब्धता ओढ़े
रात गुज़रती है ।
- - शांतनु सान्याल

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