06 जुलाई, 2020

बिना दस्तक - -

कुछ ख़्वाहिशों की ज़मीं होती
हैं वृष्टि छाया की तरह बंजर,
उम्र ढल जाती है सिर्फ़
बादलों को निहार
कर । कुछ
चिठियाँ
बूढ़ा
जाती हैं संदूकों में बंद रह कर,
कुछ अनुरागी पल पहुँच
जाते हैं मंज़िल तक,
यूँ ही पत्तों की
तरह बह
कर ।
दरअसल ख़ुद से हम बाहर
कभी निकल पाते ही नहीं,
सिर्फ़ संवरने की चाह
में आईने से कभी
बाहर आते
नहीं ।
दहलीज़ पे मेरे ये कौन सुबह
सवेरे अतीत का अख़बार
रख गया, मेरी आँखों
में अभी तक हैं
हसीं ख़्वाबों
के साए,
न जाने कौन मेरी पलकों पे फिर
से बूंदों का अम्बार रख गया ।
जिसे मैं भूल आया था
इक ज़माना हुआ,
किसी दिलकश
मोड़ पे, न
जाने
कौन फिर मेरे दरवाज़े दोबारा
मिलने का ऐतबार रख
गया ।
- - शांतनु सान्याल

7 टिप्‍पणियां:

  1. असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।

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  2. असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।

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